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Maize Farming

भविष्य की फसल है मक्का

भविष्य की फसल है मक्का

मक्का भविष्य की फसल है। हम यह बात इसलिए भी कह रहे हैं क्योंकि मक्का में पोषक तत्वों की मौजूदगी गेहूं से कहीं अधिक है। इसकी उपज भी साल में दो बार ली जा सकती है। इसके अलावा मनुष्य के लिए खाद्यान्न के साथ पशुओं के लिए पोषक चारा भी इससे मिल जाता है। इसकी खेती के लिए यदि सही तरीके अपनाए जाएं तो उपज 35 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है। खरीफ में पैदा होने वाली मक्का के अच्छे उत्पादन के लिए जरूरी बिंदुओं हम प्रकाश डाल रहे हैं। 

कैसे करें खेती

makka ki kheti 

 मक्का की खेती के लिए बालवीर 2 मठ भूमि उपयुक्त रहती है। ऐसे खेत का चयन करें जिसमें से पानी निकल जाता हो। खेत को भैरव और कल्टीवेटर से दो-दो बार जोत कर पाटा लगाना चाहिए।अच्छी पैदावार के लिए आखरी जुताई में उर्वरकों का प्रयोग करें। 

कितना उर्वरक डालें

makka urvarak


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उर्वरकों का प्रयोग करने से पहले खेतों की मिट्टी की जांच करा लेनी चाहिए ताकि हमें पता चल सके कि हमारे खेत में किन-किन तत्वों की कितनी कमी है। यदि मृदा परीक्षण नहीं हुआ है तो देर से पकने वाली शंकर एवं संकुल पर जातियों के लिए 120, 60, 60 व शीघ्र पकने वाली प्रजातियों हेतु 100, 60,40 तथा देशी प्रजातियों के लिए 60, 30, 30 किलोग्राम नाइट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश की क्रमशः मात्रा का प्रयोग करें। अच्छी फसल के लिए सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग अवश्य करें। उसकी मात्रा 10 टन प्रति हेक्टेयर खेत में डालनी चाहिए। उक्त कभी कल उर्वरकों में से नाइट्रोजन को पानी लगाने के बाद के लिए आधी मात्रा में बचा लेना चाहिए बाकी उर्वरकों को मिट्टी में मिला दें। 

कब करें बिजाई

makka ki buwai 

देर से पकने वाली मक्का मई से मध्य जून तक कभी भी बोई जा सकती है। इसकी बिजाई मशीन से लाइनों में उचित दूरी पर करनी चाहिए ताकि भविष्य में निराई गुड़ाई उर्वरक प्रबंधन आदि में आसानी रहे। प्रति किलोग्राम बीज को ढ़ाई ग्राम थीरम, 2 ग्राम कार्बन्जिडाजिम या 3 ग्राम ट्राइकोडरमा से उपचारित करके ही बोना चाहिए। उपचारित करने के लिए उक्त तीनों दवाओं में से किसी एक को लेकर बीज पर हल्के से पानी के छींटे देकर हाथों में दस्ताने पहनकर हर दाने पर लपेट देना चाहिए।


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बिजाई व बीज दर

बिजाई करते समय ताना साडे 3 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरा ना डालें लाइनों की दूरी 45 सेंटीमीटर अगेती किस्मों के लिए एवं देर से पकने वाली किस्मों के लिए 60 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। अगेती किस्मों में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर मध्यम व देरी से पकने वाली प्रजातियों को 25 सेंटीमीटर दूरी पर लगाना चाहिए। देसी एवं छोटे दाने वाली किस्मों के लिए बीज 16 से 18 किलोग्राम एवं हाइब्रिड किस्म का बीज 20 से 22 किलोग्राम तथा सामान्य संकुल किस्मौं का 18 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग में लाना चाहिए। 

भूमि का उपचार जरूरी

makka ki kheti 

 जिन क्षेत्र में फफूंदी जनित बीमारियों की समस्या है उन क्षेत्रों में जमीन की गहरी जुताई तेज गर्मियों में एक एक हफ्ते के अंतराल पर करें ताकि मिट्टी पलट के सिक जाए। इसके अलावा सड़े हुए गोबर की खाद में ट्राइकोडरमा मिलाकर एक हफ्ते छांव में रखकर उसे भी खेत में बुरक कर तुरंत मिट्टी में मिला देना चाहिए। दीमक के प्रकोप वाले इलाकों में क्लोरो पायरी फास 20 ईसी की  ढाई लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर 20 किलोग्राम बालों में मिलाकर प्रत्येक के किधर से मिट्टी में मिला दें।

बेबी कॉर्न की खेती (Baby Corn farming complete info in hindi)

बेबी कॉर्न की खेती (Baby Corn farming complete info in hindi)

दोस्तों आज हम बात करेंगे बेबी कॉर्न की खेती के विषय में, बेबी कॉर्न (Baby Corn) जिसे हम आम भाषा में मक्का या फिर भुट्टे के नाम से भी जाना जाता है। यह लोगों में बहुत ही ज्यादा लोकप्रिय हैं लोग इसे बड़े चाव से खाते हैं तथा विभिन्न विभिन्न तरह से इनकी डिशेस बनाते हैं। बेबी कॉर्न से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण जानकारी जानने के लिए हमारी इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहे:

बेबी कॉर्न क्या है

बेबी कॉर्न मक्के का ही एक समूह है यानी आम भाषा में कहें तो या मक्के का परिवार है बेबी कॉर्न को मक्का या भुट्टा कहा जाता है। बेबी कॉर्न रेशमी तथा कोपलें की तरह दिखते हैं। किसान बेबी कॉर्न की कटाई तब करते हैं जब यह आकार में छोटे होते हैं और यह पूरी तरह से अपरिपक्व हो। बेबी कॉर्न जल्दी ही परिपक्व हो जाते हैं इसीलिए किसान इन की कटाई जल्दी कर देते हैं।कटाई के बाद बेबी कॉर्न को हाथों द्वारा खेतों से चुना जाता है।बेबी कॉर्न आमतौर पर दिखने में गुलाबी, सफेद, नीले, पीले रंगो के रूप में पाए जाते हैं। बेबी कार्न खाने में बहुत ही ज्यादा मुलायम और सौम्य होते हैं।इसीलिए यह बहुत ही ज्यादा दुनिया भर में मशहूर है। प्राप्त की गई जानकारियों से या पता चला है। कि बेबी कॉर्न एशिया में बहुत ही ज्यादा खाने तथा अन्य डिशेस में इस्तेमाल किया जाता है। 

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बेबी कॉर्न से स्वास्थ्य को लाभ

बेबी कॉर्न खाने से स्वास्थ्य को विभिन्न विभिन्न प्रकार के लाभ होते हैं यह लाभ कुछ इस प्रकार है: सर्वप्रथम बेबी कॉर्न में मौजूद तत्व जैसे आयरन, विटामिन बी, फोलिक एसिड की काफी अच्छी मात्रा पाई जाती है। यह सभी आवश्यक तत्व शरीर में एनीमिया की कमी को दूर करने में सहायक होते हैं। न्यूट्रिएंट से कॉर्न परिपूर्ण होते हैं। बेबी कॉर्न सेहत के लिए काफी अच्छे होते हैं। फाइबर की मात्रा बेबी कॉर्न में काफी पाई जाती है। इसमें कैलोरी काफी कम होती है, वजन को कम करने में बेबी कॉर्न बहुत ही ज्यादा सहायक होते हैं। बेबी कॉर्न रक्त शर्करा के स्तर को पूरी तरह से नियंत्रित करता है

बेबी कॉर्न उत्पादन वाले राज्य

भारत में सबसे ज्यादा बेबीकॉर्न का उत्पादन करने वाले राज्य कुछ इस प्रकार है : जैसे बिहार कर्नाटक, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश इत्यादि राज्य है जहां बेबी कॉर्न की खेती उच्च मात्रा में होती है। बेबी कॉर्न सबसे ज्यादा राजस्थान और कर्नाटक में सर्वाधिक मात्रा में इसका उत्पादन होता है।

बेबी कॉर्न की खेती

बेबी कॉर्न की ख़ेती करना किसानों के लिए हर प्रकार से लाभदायक होता है, किसान बेबी कॉर्न की खेती 1 वर्ष में लगभग 3 से 4 बार करते हैं। बेबी कॉर्न की ख़ेती रबी के मौसम में की जाती है। इस खेती में लगभग 110 से 120 दिनों का समय लगता है। बेबी कॉर्न की फसल जायद के मौसम में लगभग 70 से 80 दिनों का समय लगाती है। बेबी कॉर्न की फसल खरीफ के मौसम में 55 से 65 दिनों का समय लेकर तैयार होती है। इन तीनों मौसम में किसान बेबी कॉर्न की फसल से आय का विभिन्न विभिन्न प्रकार से लाभ उठाते हैं।

बेबी कॉर्न की खेती के लिए जलवायु

बेबी कॉर्न की खेती के लिए अच्छी धूप की व्यवस्था करना बहुत ही ज्यादा उपयोगी होती हुई।अच्छी जलवायु के साथ ही साथ 22 डिग्री सेल्सियस से लेकर 28 डिग्री सेल्सियस के तापमान की आवश्यकता पड़ती है।इन तापमान के आधार पर बेबी कॉर्न की फसल का उत्पादन उच्च कोटि पर होता है।

बेबी कॉर्न की खेती के लिए मिट्टी चयन

बेबी कॉर्न की खेती करने के लिए सबसे उपयुक्त और जो अच्छी मिट्टी का चयन किया जाता है वह मिट्टी बलुई दोमट मिट्टी है। अम्लीय मिट्टी में इस फसल को उगाया जाता है। खेतों में जल निकास की व्यवस्था को बनाए रखना चाहिए।

बेबी कॉर्न की फसल के लिए खेत को तैयार करना

सबसे पहले बेबी कॉर्न की फसल को तैयार करने से लिए खेत की अच्छी तरह से जुताई करनी होती है। फसल को उगाने के लिए भूमि में लगभग 15 टन हेक्टर फार्म यार्ड खाद की आवश्यकता होती है। किसान खेत की जुताई करने के लिए डिस्क हल का इस्तेमाल करते हैं। 


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दो से तीन बार डिस्क हल से जुताई करने के बाद बेबी कॉर्न की खेती के लिए कल्टीवेटर द्वारा जुताई की जाती है।इस प्रक्रिया द्वारा मिट्टी को बारीक किया जाता है। ताकि बीजों का अच्छे से वातन के साथ-साथ बेहतरीन ढंग से अंकुरण हो सके। बेबी कॉर्न के मेड़ें और खांचे लगभग 45 से लेकर 25 सेंटीमीटर की दूरी पर बनाया जाता है।

बेबी कॉर्न के लिए बीज दर तथा दूरी

बेबी कॉर्न की खेती करने के लिए किसान उच्च कोटि की गुणवत्ता वाले बीज का इस्तेमाल करते हैं। फसलों के लिए किसान बीज का लगभग 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भूमि में इस्तेमाल करते हैं। बेबी कॉर्न की फसल में खेतों की दूरी पौधों से लगभग 15 सेंटीमीटर की होती है। 


दोस्तों हम उम्मीद करते हैं, कि हमारा यह आर्टिकल बेबी कॉर्न की ख़ेती (BabyCorn farming complete information in hindi) आपको पसंद आया होगा। हमारे इस आर्टिकल से आपने बेबी कॉर्न से जुड़ी सभी प्रकार की आवश्यक जानकारी प्राप्त की होगी। हमारी इस आर्टिकल को ज्यादा से ज्यादा सोशल मीडिया और अपने दोस्तों के साथ शेयर करें। धन्यवाद।

मक्के की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण एवं विस्तृत जानकारी

मक्के की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण एवं विस्तृत जानकारी

भारत में मक्का गेहूं के पश्चात सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल है। मक्के की फसल को विभिन्न प्रकार से इस्तेमाल में लाया जाता है। यह मनुष्य एवं पशुओं दोनों के लिए आहार का कार्य करती है। 

इसके अतिरिक्त व्यापारिक दृष्टि से भी इसका काफी अहम महत्त्व है। मक्के की फसल को मैदानी इलाकों से लेकर 2700 मीटर ऊंचे पहाड़ी इलाकों में भी सुगमता से उगाया जा सकता है। 

भारत में मक्के की विभिन्न उन्नत किस्में पैदा की जाती है, जो कि जलवायु के अनुरूप शायद ही बाकी देशों में संभव हो। मक्का प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और विटामिन का बेहतरीन स्त्रोत है, जो कि मानव शरीर को ऊर्जा से भर देता है। 

इसके अंदर भरपूर मात्रा में फॉसफोरस, मैग्निशियम, आयरन, मैगनिज, जिंक और कॉपर जैसे खनिज प्रदार्थ भी उपलब्ध होते हैं। मक्का एक प्रकार से खरीफ ऋतु की फसल होती है। 

लेकिन, जहाँ सिंचाई के साधन मौजूद हैं, वहां इसे रबी और खरीफ की अगेती फसलों के रूप में पैदा किया जाता है। मक्के की फसल की बहुत ज्यादा मांग है, जिस कारण से इसे बेचने में भी सहजता होती है।

मक्के की खेती हेतु जलवायु एवं तापमान

मक्के की बेहतरीन पैदावार अर्जित करने के लिए उचित जलवायु एवं तापमान होना आवश्यक होता है। इसकी फसल उष्ण कटिबंधीय इलाकों में बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करती है। 

इसके पौधों को सामान्य तापमान की जरूरत पड़ती है। शुरुआत में इसके पौधों को विकास करने के लिए नमी की बेहद जरूरत होती है, 18 से 23 डिग्री का तापमान पौधों के बढ़वार और 28 डिग्री का तापमान पौधे के विकास के लिए ज्यादा बेहतर माना जाता है। 

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मक्के की खेती हेतु जमीन कैसी होनी चाहिए

मक्के की खेती को आम तौर पर किसी भी जमीन में कर सकते हैं। लेकिन, अच्छी गुणवत्ता एवं अधिक पैदावार के लिए बलुई दोमट एवं भारी भूमि की जरूरत पड़ती है। 

इसके अतिरिक्त जमीन भी अच्छी जल निकासी वाली होनी चाहिए। मक्के की खेती के लिए लवणीय एवं क्षारीय भूमि को बेहतर नहीं माना जाता है।

मक्का का खेत तैयार करने की विधि

मक्के के बीजों की खेत में बुवाई करने से पूर्व खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लेना चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम खेत की अच्छी तरीके से गहरी जुताई कर लेनी चाहिए। 

इसके पश्चात कुछ वक्त के लिए खेत को ऐसे ही खुला छोड़ दें। मक्के की बेहतरीन उपज के लिए मिट्टी को पर्याप्त मात्रा में उवर्रक देना जरूरी होता है। 

इसके लिए 6 से 8 टन पुरानी गोबर की खाद को खेत में डाल देना चाहिए। उसके बाद खेत की तिरछी जुताई करवा दें, जिससे कि खाद अच्छी तरह से मृदा में मिल जाये। 

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जमीन में जस्ते की कमी होने पर वर्षा के मौसम से पूर्व 25 किलो जिंक सल्फेट की मात्रा को खेत में डाल देना चाहिए। खाद और उवर्रक को चुनी गई उन्नत किस्मों के आधार पर देना चाहिए। 

इसके पश्चात बीजों की रोपाई के दौरान नाइट्रोजन की 1/3 मात्रा को देना चाहिए। साथ ही, इसके अन्य दूसरे हिस्से को बीज रोपाई के एक माह पश्चात दें और अंतिम हिस्से को पौधों में फूलों के लगने के समय देना चाहिए।

मक्का की बुवाई का समुचित वक्त व तरीका

मक्के के खेत में बीजों को लगाने से पूर्व उन्हें अच्छे से उपचारित कर लेना चाहिए, जिससे बीजों की बढ़वार के दौरान उनमें रोग न लगे। 

इसके लिए सर्वप्रथम बीजों को थायरम या कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम की मात्रा को प्रति 1 किलो बीज को उपचारित कर लें। इस उपचार से बीजों को फफूंद से संरक्षित किया जाता है। 

इसके उपरांत बीजों को मृदा में रहने वाले कीड़ो से बचाने के लिए प्रति किलो की दर से थायोमेथोक्जाम अथवा इमिडाक्लोप्रिड 1 से 2 ग्राम की मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए।

मक्का की उन्नत किस्में देगी शानदार उत्पादन, जानिये मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में।

मक्का की उन्नत किस्में देगी शानदार उत्पादन, जानिये मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में।

आज के इस आर्टिकल में आपको बताया जाएगा मक्का की उन्नत किस्मों के बारे में। मक्का की यह किस्में भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान लुधियाना स्थित ICAR द्वारा विकसित की गई है। 

मक्का की यह किस्में प्रति हेक्टेयर 95 क्विंटल उपज प्रदान करती है। मक्का की उन्नत किस्मों का चयन कर किसान ज्यादा उत्पादन कर सकता है और लाभ उठा सकता है। 

मक्का का उत्पादन भारत के बहुत से राज्यों में बड़े स्तर पर किया जाता है। क्योंकि बाजार में इसका अच्छा ख़ासा भाव मिल जाता है। इसके अलावा किसान मक्का की उन्नत किस्मों का चयन कर अधिक पैदावार प्राप्त कर सकते है। 

मक्के की यह उन्नत किस्में कम समय में अधिक पैदावार प्रदान की जाती है। मक्के की यह उन्नत किस्में भारतीय अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गई है। 

मक्का की IMH-224 किस्म

भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान द्वारा यह किस्म 2002 में  विकसित की गई है। मक्का की यह किस्म ज्यादातर उड़ीसा, बिहार, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में उगाई जाती है। 

मक्का की IMH-224 किस्म प्रति हेक्टर में 70 क्विंटल उपज प्रदान करती है। मक्का की ये किम लगभग 80 से 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। 

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मक्का की यह किस्म फुसैरियम डंठल सड़न, चारकोल रोट और मैडिस लीफ ब्लाइट जैसे रोगों से लड़ने में भी काफी सहायक है। 

मक्का की IQMH 203 किस्म

मक्का की यह किस्म Biofortified वैरायटी की मानी जाती है। भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान द्वारा यह किस्म 2021 में विकसित की गई है। 

मक्का की  यह IQMH 203  किस्म ज्यादातर छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के किसानों के लिए विकसित की गई है। 

मक्का की यह किस्म 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। मक्का की यह किस्म चिलोपार्टेलस, फफूंदी और फ्युजेरियम डंठल सड़न जैसे रोगों से फसल को बचाती है। 

मक्का की PMH-1 LP किस्म

मक्का की यह किस्म ज्यादातर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड राज्यों में उगाई जाती है। मक्का की यह किस्म प्रति हेक्टेयर 90 क्विंटल उपज प्रदान करती है। 

मक्का की इस किस्म में रोग और कीट लगने की काफी कम संभावनाएं होती है। यह मक्का के फसल में लगने वाले कीट और रोगों को नियंत्रित करने में भी सहायक होती है। 

पुरे देश में अधिकतर किसान धान की खेती के बाद मक्का की खेती करते है। किसानों द्वारा मक्का की खेती पशुओ के हरे चारे, भुट्टे और दाने के लिए की जाती है। 

मक्का के फसल बहुत ही कम समय में पककर तैयार हो जाती है। किसानों द्वारा मक्का की उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए  ताकि अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके। 

मक्के की खेती आर्द और उष्ण जलवायु में भी आसानी से की जा सकती है। मक्का की खेती के लिए अच्छी जल निकास वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। 

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक़ करें मक्का की खेती 

मक्का की बुवाई के लिए किसानों को गेहूँ की कटाई के बाद खेत में गोबर खाद को मिला देना चाहिए। खेत में गोबर खाद के प्रयोग से भूमि की उत्पादन क्षमता बढ़ती है। 

मक्का की बुवाई का समय मई और जून के बीच में होता है। यदि किसान वैज्ञानिकों के मुताबिक़ मक्का की खेती करता है, तो उन्हें ज्यादा मुनाफा हो सकता है। 

वैज्ञानिकों के मुताबिक़ किसानों को मक्का की उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए। कई बार किसान बिना चयन करे ही फसल की बुवाई कर देता है जिससे फसल में रोग लगने की भी ज्यादा आशंकाये रहती है और उत्पादन क्षमता भी घट जाती है। इसका पूरा असर फसल की गुणवत्ता पर पड़ता है। 

बुवाई के समय पर बीज का उपचार 

मक्का की बुवाई करने से पहले किसानों द्वारा बीज को उपचारित कर लेना चाहिए। बुवाई से पहले मक्का के प्रति किलो बीज में 2 ग्राम कार्बेंडाजिम और 1 मिलीलीटर इमिडाक्लोप्रिड से उपचारित करें।  

उसके बाद प्रति एकड़ बीज में 200 मिलीलीटर एजोटोबेक्टर और 200 मिलीलीटर पीएसबी मिला कर बीज को उपचारित किया जा सकता है। 

इन सभी के अलावा किसान बीज उपचार करने के लिए नत्रजन, पोटाश, जिंक सलफेट और फॉस्फोरस का उपयोग भी किया जा सकता है। 

बुवाई के समय रखे इन बातों का ख़ास ख्याल 

असंचित भूमि पर किसानों को उर्वरक की आधी मात्रा का उपयोग करना चाहिए। मक्का की बुवाई के बाद किसानों को खेत में अतराजीन और पेंदीमैथलीन को पानी में मिलाकर खेत में छिड़कना चाहिए। 

यह कीटनाशक खेत में होने वाली खरपतवार को नियंत्रित करता है। मक्का की फसल में झुलसा रोग लगने की भी ज्यादा सम्भावनाये होती है। इसीलिए फसल को झुलसा रोग से बचाने के लिए कवकनाशी कार्बेंडाजिम का छिड़काव भी कर सकते है। 

मक्का की फसल में रोग लगने की ज्यादा सम्भावनाये होती है। मक्के की फसल में धब्बेदार, गुलाबी तनाबेधक कीट और तनाबेधक लगने के ज्यादा सम्भावनाये रहती है। 

किसान मक्के की फसल के साथ मूँग, सोयाबीन और तिल की खेती भी कर सकता है। जिससे किसान बेहतर मुनाफा कमा सकता  है।

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून का मौसम किसान भाइयों के लिए कुदरती वरदान के समान होता है। मानसून के मौसम होने वाली बरसात से उन स्थानों पर भी फसल उगाई जा सकती है, जहां पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। पहाड़ी और पठारी इलाकों में सिंचाई के साधन नही होते हैं। इन स्थानों पर मानसून की कुछ ऐसी फसले उगाई जा सकतीं हैं जो कम पानी में होतीं हों। इस तरह की फसलों में दलहन की फसलें प्रमुख हैं। इसके अलावा कुछ फसलें ऐसी भी हैं जो अधिक पानी में भी उगाई जा सकतीं हैं। वो फसलें केवल मानसून में ही की जा सकतीं हैं। आइए जानते हैं कि कौन-कौन सी फसलें मानसून के दौरान ली जा सकतीं हैं।

मानसून सीजन में बढ़ने वाली 5 फसलें:

1.गन्ना की फसल

गन्ना कॉमर्शियल फसल है, इसे नकदी फसल भी कहा जाता है। गन्ने  की फसल के लिए 32 से 38 डिग्री सेल्सियस का तापमान होना चाहिये। ऐसा मौसम मानसून में ही होता है। गन्ने की फसल के लिए पानी की भी काफी आवश्यकता होती है। उसके लिए मानसून से होने वाली बरसात से पानी मिल जाता है। मानसून में तैयार होकर यह फसल सर्दियों की शुरुआत में कटने के लिए तैयार हो जाती है। फसल पकने के लिए लगभग 15 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है। गन्ने की फसल केवल मानसून में ही ली जा सकती है। इसकी फसल तैयार होने के लिए उमस भरी गर्मी और बरसात का मौसम जरूरी होता है। गन्ने की फसल पश्चिमोत्तर भारत, समुद्री किनारे वाले राज्य, मध्य भारत और मध्य उत्तर और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में अधिक होती है। सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन तमिलनाडु राज्य  में होता है। देश में 80 प्रतिशत चीनी का उत्पादन गन्ने से ही किया जाता  है। इसके अतिरिक्त अल्कोहल, गुड़, एथेनाल आदि भी व्यावसायिक स्तर पर बनाया जाता है।  चीनी की अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मांग को देखते हुए किसानों के लिए यह फसल अत्यंत लाभकारी होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=XeAxwmy6F0I&t[/embed]

2. चावल यानी धान की फसल

भारत चावल की पैदावार का बहुत बड़ा उत्पादक देश है। देश की कृषि भूमि की एक तिहाई भूमि में चावल यानी धान की खेती की जाती है। चावल की पैदावार का आधा हिस्सा भारत में ही उपयोग किया जाता है। भारत के लगभग सभी राज्यों में चावल की खेती की जाती है। चावलों का विदेशों में निर्यात भी किया जाता है। चावल की खेती मानसून में ही की जाती है क्योंकि इसकी खेती के लिए 25 डिग्री सेल्सियश के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है और कम से कम 100 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून से पानी मिलने के कारण इसकी खेती में लागत भी कम आती है। भारत के अधिकांश राज्यों व तटवर्ती क्षेत्रों में चावल की खेती की जाती है। भारत में धान की खेती पारंपरिक तरीकों से की जाती है। इससे यहां पर चावल की पैदावार अच्छी होती है। पूरे भारत में तीन राज्यों  पंजाब,पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक चावल की खेती की जाती है। पर्वतीय इलाकों में होने वाले बासमती चावलों की क्वालिटी सबसे अच्छी मानी जाती है। इन चावलों का विदेशों को निर्यात किया जाता है। इनमें देहरादून का बासमती चावल विदेशों में प्रसिद्ध है। इसके अलावा पंजाब और हरियाणा में भी चावल केवल निर्यात के लिए उगाया जाता है क्योंकि यहां के लोग अधिकांश गेहूं को ही खाने मे इस्तेमाल करते हैं। चावल के निर्यात से पंजाब और हरियाणा के किसानों को काफी आय प्राप्त होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=QceRgfaLAOA&t[/embed]

3. कपास की फसल

कपास की खेती भी मानसून के सीजन में की जाती है। कपास को सूती धागों के लिए बहुमूल्य माना जाता है और इसके बीज को बिनौला कहते हैं। जिसके तेल का व्यावसायिक प्रयोग होता है। कपास मानसून पर आधारित कटिबंधीय और उष्ण कटिबंधीय फसल है। कपास के व्यापार को देखते हुए विश्व में इसे सफेद सोना के नाम से जानते हैं। कपास के उत्पादन में भारत विश्व का दूसरा बड़ा देश है। कपास की खेती के लिए 21 से 30 डिग्री सेल्सियश तापमान और 51 से 100 सेमी तक वर्षा की जरूरत होती है। मानसून के दौरान 75 प्रतिशत वर्षा हो जाये तो कपास की फसल मानसून के दौरान ही तैयार हो जाती है।  कपास की खेती से तीन तरह के रेशे वाली रुई प्राप्त होती है। उसी के आधार पर कपास की कीमत बाजार में लगायी जाती है। गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश,हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक,तमिलनाडु और उड़ीसा राज्यों में सबसे अधिक कपास की खेती होती है। एक अनुमान के अनुसार पिछले सीजन में गुजरात में सबसे अधिक कपास का उत्पादन हुआ था। अमेरिका भारतीय कपास का सबसे बड़ा आयातक है। कपास का व्यावसायिक इस्तेमाल होने के कारण इसकी खेती से बहुत अधिक आय होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=nuY7GkZJ4LY[/embed]

4.मक्का की फसल

मक्का की खेती पूरे विश्व में की जाती है। हमारे देश में मक्का को खरीफ की फसल के रूप में जाना जाता है लेकिन अब इसकी खेती साल में तीन बार की जाती है। वैसे मक्का की खेती की अगैती फसल की बुवाई मई माह में की जाती है। जबकि पारम्परिक सीजन वाली मक्के की बुवाई जुलाई माह में की जाती है। मक्का की खेती के लिए उष्ण जलवायु सबसे उपयुक्त रहती है। गर्म मौसम की फसल है और मक्का की फसल के अंकुरण के लिए रात-दिन अच्छा तापमान होना चाहिये। मक्के की फसल के लिए शुरू के दिनों में भूमि ंमें अच्छी नमी भी होनी चाहिए। फसल के उगाने के लिए 30 डिग्री सेल्सियश का तापमान जरूरी है। इसके विकास के लिए लगभग तीन से चार माह तक इसी तरह का मौसम चाहिये। मक्का की खेती के लिए प्रत्येक 15 दिन में पानी की आवश्यकता होती है।मक्का के अंकुरण से लेकर फसल की पकाई तक कम से कम 6 बार पानी यानी सिंचाई की आवश्यकता होती है  अर्थात मक्का को 60 से 120 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून सीजन में यदि पानी सही समय पर बरसता रहता है तो कोई बात नहीं वरना सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। अन्यथा मक्का की फसल कमजोर हो जायेगी। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में सबसे अधिक मक्का की खेती होती है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, जम्मू कश्मीर और हिमाचल में भी इसकी खेती की जाती है।

5.सोयाबीन की फसल

सोयाबीन ऐसा कृषि पदार्थ है, जिसका कई प्रकार से उपयोग किया जाता है। साधारण तौर पर सोयाबीन को दलहन की फसल माना जाता है। लेकिन इसका तिलहन के रूप में बहुत अधिक प्रयोग होने के कारण इसका व्यापारिक महत्व अधिक है। यहां तक कि इसकी खल से सोया बड़ी तैयार की जाती है, जिसे सब्जी के रूप में प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है। सोयाबीन में प्रोटीन, कार्बोहाइडेट और वसा अधिक होने के कारण शाकाहारी मनुष्यों के लिए यह बहुत ही फायदे वाला होता है। इसलिये सोयाबीन की बाजार में डिमांड बहुत अधिक है। इस कारण इसकी खेती करना लाभदायक है। सोयाबीन की खेती मानसून के दौरान ही होती है। इसकी बुवाई जुलाई के अन्तिम सप्ताह में सबसे उपयुक्त होती है। इसकी फसल उष्ण जलवायु यानी उमस व गर्मी तथा नमी वाले मौसम में की जाती है। इसकी फसल के लिए 30-32 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है और फसल पकने के समय 15 डिग्री सेल्सियश के तापमान की जरूरत होती है।  इस फसल के लिए 600 से 850 मिलीमीटर तक वर्षा चाहिये। पकने के समय कम तापमान की आवश्यकता होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=AUGeKmt9NZc&t[/embed]
मक्के की खेती (Maize farming information in Hindi)

मक्के की खेती (Maize farming information in Hindi)

मक्के को भुट्टा (Maize or Corn) भी कहा जाता है, बारिश में तो लोग बड़े ही शौक से भुट्टे को खाते हैं। मक्के से जुड़ी सभी आवश्यक बातों को जानने के लिए हमारी इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने:

मक्के की खेती:

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार मक्का एक खाद्य फसल है, मक्का मोटे अनाजों के अंतर्गत आता है। मक्के की फसल भारत के मैदानी भागों में उगाई जाती है तथा 2700 मीटर उँचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों तक फैली हुई है। मक्के की फसल के लिए सभी प्रकार की मिट्टी उपयोगी होती है परंतु किसान दोमट मिट्टी का चयन करते हैं। मक्के को खरीफ ऋतु की फसल में भी उगाया जाता है। मक्के में आवश्यक तत्व जैसे कार्बोहाइड्रेट का बहुत अच्छा स्त्रोत मौजूद होता है। आहार के रूप में मक्का बहुत ही महत्वपूर्ण और अपनी एक अलग जगह बनाए हुए हैं।

मक्के से बनने वाली डिशेस:

मक्के से विभिन्न प्रकार की डिशेस बनती है जैसे: गांव में मक्के को अच्छी तरह से सुखाकर पीसने के बाद गुड़ मिलाकर खाया जाता है, मक्के से हलवा बनता हैं, मक्के की रोटी गांव में लोग खाना बहुत पसंद करते हैं, मक्के को बारिश के दिनों में भून कर खाया जाता है, मक्के को स्वीट कॉर्न  (Baby Corn) के रूप में भी लोग काफी पसंद करते हैं, सभी प्रकार की डिशेस बनाने में मक्के का इस्तेमाल किया जाता है।

मक्के की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और भूमि:

मक्के उत्पादन के लिए सबसे उपयुक्त जलवायु उष्ण और आर्द की जलवायु होती है जो फसलों को पनपने में सहायता करती है। मक्के की फसल के लिए जल निकास वाली भूमि सबसे आवश्यक मानी जाती है। खेत तैयार करते समय भूमि में जल निकास की व्यवस्था को बनाए रखना उपयुक्त होता है। पहली बारिश होने के बाद हैरो के पश्चात पाटा चलाना उपयुक्त है। 

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मक्के की फसल के लिए खेत को तैयार करें:

मक्के की फसल के लिए खेत को भली प्रकार से जुताई की आवश्यकता होती है। भूमि को जोत कर समतल कर ले, हरो का इस्तेमाल करने के बाद पाटा चला दे। अगर आप गोबर की खाद का इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो सड़ी हुई खाद को अच्छी तरह से खेत की आखरी जुताई करने के बाद मिट्टियों में मिला दे।

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मक्के की फसल की बुवाई का समय:

मक्के की फसल की विभिन्न विभिन्न प्रकार की बुवाई इन के बीजों पर आधारित होती है और किस समय किस बीज को बोना चाहिए वह किसान उचित रूप से जानते हैं। इसीलिए फसल बुवाई का समय एक दूसरे से भिन्न होता है:

  • किसान मक्के की खरीफ फसल की बुवाई का समय जून से जुलाई तक का निश्चित करते हैं।
  • मक्के की रबी फसल की बुवाई का समय अक्टूबर से नवंबर तक का होता है।
  • मक्के की जायद फसलों की बुवाई का समय फरवरी से मार्च तक का होता है।

मक्के की फसल की बुवाई का तरीका:

मक्के की फसल बुवाई करने के लिए अगर आपके पास सिंचाई का साधन पहले से मौजूद है, तो आप 12 से 15 दिन पहले ही मक्के की बुवाई करना शुरू कर दें। मक्के की बुवाई आप बारिश शुरू होने पर भी कर सकते हैं। अधिक मक्के की पैदावार प्राप्त करने के लिए फसल की बुवाई पहले करे। बीज बोने के लिए इसकी गहराई लगभग 3 से 5 सेंटीमीटर तक रखना उपयोगी होता है। मक्की की बुआई करने के बाद एक हफ्ते के बाद मिट्टी चढ़ाना आवश्यक होता है। बुवाई किसी भी तरह से कर सकते हैं लेकिन पौधों की संख्या 55 से 80 हजार हेक्टेयर के हिसाब से रखनी चाहिए।

मक्के की फसल के लिए उपयुक्त खाद का चयन:

मक्की की फसल के लिए सबसे उपयोगी और आवश्यक सड़ी हुई गोबर की खाद होती है। कभी-कभी किसान उर्वरक खाद, नत्रजन फास्फोरस, पोटाश आदि का भी इस्तेमाल करते हैं।

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मक्के की फ़सल के लिए निराई-गुड़ाई:

मक्के की फसल की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए निराई गुड़ाई बहुत ही आवश्यकता होती है। या निराई गुड़ाई आपको लगभग बीज बोने के बाद 10 से 20 दिनों के अंदर कर देनी चाहिए। यह निराई गुड़ाई आप किसी भी प्रकार के हल द्वारा या फिर ट्रैक्टर द्वारा कर सकते हैं। कुछ रसायनिक दवाओं का भी इस्तेमाल करें जैसे: एट्राजीन नामक निंदानाशक का इस्तेमाल करना उपयुक्त होता है। इसका इस्तेमाल अंकुरण आने से पहले 600 से 800 ग्राम तक 1 एकड़ की दर पर पूरे खेतों में भली प्रकार से छिड़काव करना उचित होता है। निराई गुड़ाई के बाद 20 से 25 दिनों के बाद मिट्टी चढ़ाएं।

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मक्के की फसल की सिंचाई:

मक्के की पूरी फसल को लगभग 400 से 600 मिनिमम पानी की जरूरत पड़ती है। मक्के की फसल की सिंचाई पुष्पन दाना भरने के टाइम करते हैं।सिंचाई करते समय हमेशा जल निकास की व्यवस्था को बनाए रखना बहुत जरूरी होता है।

मक्के की फ़सल को कीट व रोगों से सुरक्षित रखने के उपाय:

  • मक्के की फसलों को सुरक्षित रखने के लिए सिंचाई के पानी में क्लोरपाइरीफास 2.5 प्रति लीटर मिलाकर अच्छी तरह से सिंचाई करें।
  • मक्के के तने और जड़ों को सुरक्षित रखने के लिए लगभग आपको 10 लीटर गौमूत्र लेना है। उसमें आपको नीम के पत्ते, धतूरे के पत्ते, करंज के पत्ते, डालकर अच्छी तरह से उबाल लेना है। पानी जब 5 लीटर बजे तब उसे ठंडा कर अच्छी तरह से छान ले। अरंडी के तेल में लगभग 50 ग्राम सर्फ़ मिलाकर तनें और जड़ों में डाल दें।
  • मक्के की फसलों को सूत्रकृमि से बचाने के लिए फसल बोने के एक हफ्ते बाद 10 किलोग्राम फोरेट 10g का इस्तेमाल करे।
  • मक्के की फसल को तना छेदक कीट से सुरक्षित रखने के लिए कार्बोफ्यूरान 3g 20 किग्रा, फोरेट10% सीजी 20 किग्रा, डाईमेथोएट 30%क्यूनालफास 25 का इस्तेमाल कर छेदक जैसी कीटों से फ़सल की सुरक्षा करे।

मक्के की फसल की उपयोगिता:

मक्के की फसल में कार्बोहाइड्रेट का बहुत ही अच्छा स्त्रोत होता है। इसीलिए यह सबसे महत्वपूर्ण फसल मानी जाती है। मक्के की फसल मनुष्य और पशु दोनों के आहार का सबसे महत्वपूर्ण साधन होता है। मक्के की फसल औद्योगिक दृष्टिकोण में बहुत ही उपयोगी होती हैं। मक्के की फसल को सुरक्षित रखने के लिए भिन्न प्रकार की सावधानी बरतनी चाहिए। ताकि उनमें किसी प्रकार के कीड़े कीट ना लग सके। मक्के की फसल से किसानों को विभिन्न प्रकार का लाभ पहुंचता है आय निर्यात का साधन बना रहता है। 

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मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का का उपयोग हर क्षेत्र में समय के साथ-साथ बढ़ता चला जा रहा है। अब चाहे वह खाने में हो अथवा औद्योगिक छेत्र में। मक्के की रोटी से लेकर भुट्टे सेंककर, मधु मक्का के कॉर्नफलेक्स, पॉपकार्न आदि के तौर पर होता है। 

वर्तमान में मक्का का इस्तेमाल कार्ड आइल, बायोफयूल हेतु भी होने लगा है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का इस्तेमाल मुर्गी एवं पशु आहार के तौर पर किया जाता है। 

भुट्टे तोड़ने के उपरांत शेष बची हुई कड़वी पशुओं के चारे के तौर पर उपयोग की जाती है। औद्योगिक दृष्टिकोण से मक्का प्रोटिनेक्स, चॉक्लेट, पेन्ट्स, स्याही, लोशन, स्टार्च, कोका-कोला के लिए कॉर्न सिरप आदि बनने के उपयोग में लिया जाता है। 

बिना परागित मक्का के भुट्टों को बेबीकार्न मक्का कहा जाता है। जिसका इस्तेमाल सब्जी एवं सलाद के तौर पर किया जाता है। बेबीकार्न पौष्टिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण साबित होता है।

मक्का की खेती करने हेतु कैसी जमीन होनी चाहिए

सामान्यतः
मक्के की खेती को विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। परंतु, इसके लिए दोमट मृदा अथवा बुलई मटियार वायु संचार एवं जल की निकासी की उत्तम व्यवस्था के सहित 6 से 7.5 पीएच मान वाली मृदा अनुकूल मानी गई है।

मक्का की खेती हेतु कौन-सी मृदा उपयुक्त होती है

मक्के की फसल के लिए खेत की तैयारी जून के माह से ही शुरू करनी चाहिए। मक्के की फसल के लिए गहरी जुताई करना काफी फायदेमंद होता है। 

खरीफ की फसल के लिए 15-20 सेमी गहरी जुताई करने के उपरांत पाटा लगाना चाहिए। जिससे खेत में नमी बनी रहती है। इस प्रकार से जुताई करने का प्रमुख ध्येय खेत की मृदा को भुरभुरी करना होता है। 

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फसल से बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए मृदा की तैयारी करना उसका प्रथम पड़ाव होता है। जिससे प्रत्येक फसल को गुजरना पड़ता है।

मक्का की फसल के लिए खेत की तैयारी के दौरान 5 से 8 टन बेहतरीन ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे डालनी चाहिए। 

भूमि परीक्षण करने के बाद जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 किलो जिंक सल्फेट बारिश से पहले खेत में डाल कर खेत की बेहतर ढ़ंग से जुताई करें। रबी के मौसम में आपको खेत की दो वक्त जुताई करनी पड़ेगी।

मक्के की खेती को प्रभवित करने वाले कीट और रोग तथा उनका इलाज

मक्का कार्बोहाईड्रेट का सबसे अच्छा स्रोत होने साथ-साथ एक स्वादिष्ट फसल भी है, जिसके कारण इसमें कीट संक्रमण भी अधिक होता है। मक्का की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों के विषय में चर्चा करते हैं।

गुलाबी तनाबेधक कीट

इस कीट का संक्रमण होने से पौधे के बीच के हिस्से में हानि पहुँचती है, जिसके परिणामस्वरूप मध्य तने से डैड हार्ट का निर्माण होता है। इस वजह से पौधे पर दाने नहीं आते है।

मक्का का धब्बेदार तनाबेधक कीट

इस तरह के कीट पौधे की जड़ों को छोड़कर सभी हिस्सों को बुरी तरह प्रभावित करते है। इस कीट की इल्ली सबसे पहले तने में छेद करती है। इसके संक्रमण से पौधा छोटा हो जाता है और उस पौधे में दाने नहीं आते हैं। आरंभिक स्थिति में डैड हार्ट (सूखा तना) बनता है। इसे पौधे के निचले भाग की दुर्गंध से पहचाना जा सकता है।

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उक्त कीट प्रबंधन हेतु निम्न उपाय है

तनाछेदक की रोकथाम करने के लिये अंकुरण के 15 दिन के उपरांत फसल पर क्विनालफास 25 ई.सी. का 800 मि.ली./हे अथवा कार्बोरिल 50 फीसद डब्ल्यू.पी. का 1.2 कि.ग्रा./हे. की दर से छिड़काव करना उपयुक्त होता है। इसके 15 दिनों के उपरांत 8 कि.ग्रा. क्विनालफास 5 जी. अथवा फोरेट 10 जी. को 12 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर एक हेक्टेयर खेत में पत्तों के गुच्छों पर डाल दें।

मक्का में लगने वाले मुख्य रोग

1. डाउनी मिल्डयू :- इस रोग का संक्रमण मक्का बुवाई के 2-3 सप्ताह के उपरांत होना शुरू हो जाता है। बतादें, कि सबसे पहले पर्णहरिम का ह्रास होने की वजह से पत्तियों पर धारियां पड़ जाती हैं, प्रभावित भाग सफेद रूई की भांति दिखाई देने लगता है, पौधे की बढ़वार बाधित हो जाती है। 

उपचार :- डायथेन एम-45 दवा को पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव जरूर करना चाहिए। 

2. पत्तियों का झुलसा रोग :- पत्तियों पर लंबे नाव के आकार के भूरे धब्बे निर्मित होते हैं। रोग नीचे की पत्तियों से बढ़ते हुए ऊपर की पत्तियों पर फैलना शुरू हो जाते हैं। नीचे की पत्तियां रोग के चलते पूर्णतया सूख जाती हैं। 

उपचार :- रोग के लक्षण नजर पड़ते ही जिनेब का 0.12% के घोल का छिड़काव करना चाहिए। 

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3. तना सड़न :- पौधों की निचली गांठ से रोग संक्रमण शुरू होता है। इससे विगलन के हालात उत्पन्न होते हैं एवं पौधे के सड़े हुए हिस्से से दुर्गंध आनी शुरू होने लगती है। पौधों की पत्तियां पीली होकर के सूख जाती हैं। साथ ही, पौधे भी कमजोर होकर नीचे गिर जाती है। 

उपचार :- 150 ग्रा. केप्टान को 100 ली. पानी मे घोलकर जड़ों में देना चाहिये।

मक्का की फसल की कटाई और गहाई कब करें

फसल समयावधि पूरी होने के बाद मतलब कि चारे वाली फसल की बुवाई के 60-65 दिन उपरांत, दाने वाली देशी किस्म की बुवाई के 75-85 दिन बाद, एवं संकर एवं संकुल किस्म की बुवाई के 90-115 दिन पश्चात तथा दाने मे करीब 25 प्रतिशत तक नमी हाने पर कटाई हो जानी चाहिए। 

 मक्का की फसल की कटाई के पश्चात गहाई सबसे महत्वपूर्ण काम है। मक्का के दाने निकालने हेतु सेलर का इस्तेमाल किया जाता है। सेलर न होने की हालत में थ्रेशर के अंदर सूखे भुट्टे डालकर गहाई कर सकते हैं।